Quick Fact
Name
Lako Bodra
BIRTH DATE
19.9.1919
DEATH DATE
29.6.1986
EDUCATION
Graduation in B.Sc(Homeopathic)
OCCUPATION
Thinker, Poet, Writer, Dramatist
WIFE
Janki Purty
PLACE OF BIRTH
Paseya,Khutpani, West Singhbhum
PLACE OF DEATH
Tata Main Hospital(TMH),Jamshedpur
PARENTS
Lebeya Bodra(Father)
Jano Kui(Mother)
CHILDREN
1.Kadal Mai,
2.Lalitanjani Singh Bodra(Munna)
3.Bheem Vallabh Singh Bodra/Bing Vikram Singh Bodra(Sada)
4.Bah Mai Manju Bodra,
5.Ranjit Singh Bodra(Leete),
6.Bah Mai Keya Pul Bodra,
7.Sinu Bodra
8.Lal Lebeya Singh Bodra & Nil Lebeya Singh Bodra
‘हो’ समाज के द्वारा वारङ क्षिति लिपि की स्वीकृत
(1919-1986)
इस लिपि में 10 स्वर वर्ण 21 व्यंजन वर्ण तथा मूल क्षिति के द्वारा एस्ट्रो-एशियाटिक भाषा के सभी शब्दों को एक बोली के उच्चारण को अक्षरश लिखे जाने की क्षमता पाई गई।
गुरु कोल लाको बोदरा जी के द्वारा आविष्कृत लिपि वारङ क्षिति को ‘हो’ समाज ने सहज ही स्वीकार नहीं किया वरन इसे कई-कई अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। गुरू लाको बोदरा जी को वारङ क्षिति लिपि की वैज्ञानिकता, व्यावहारिकता एवं भाषा विज्ञान कि आधार पर इसकी श्रेष्ठता, लोगों को स्वीकृत कराने के लिए, सामाजिक संस्थानों की औपचारिक-अनौपचारिक बैठकों में लिपि के स्वरूप, उच्चारण, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं की विस्तृत व्याख्या करनी पड़ी, उसके पश्चात् ही बुध्दि जीवियों, एवं समाज के प्रबध्द वर्ग इसे स्वीकार किया।
सामाजिक संस्थाओं में देखा जाय तो काफी मन्थन के पश्चात् “सिदा होरा सुसार अखड़ा” (निबन्धन सं. 9401य883 -1975-76) भुवनेश्वर ने लिपि के विवाद को समाप्त करने के लिए सकरात्मक पहल किया। 90 के दशक में उक्त संस्था के तत्वावधान में स्ट्रोएशियाटिक मुन्डा परिवार संबंधित पण्डितों द्वारा आविष्कृत लिपि की व्यावहारिकता एवं विशेषताओं के आधार पर किसी एक श्रेष्ठ लिपि के चयन के लिए 1983 ई. को भूत पूर्व संसद श्री सी. एम. सिंह की अध्यक्षता में जोड़ा में एक सम्मेलन बुलाई गई। सम्मेलन में सिदा होरा सुसार अखड़ा, मुण्डरी समाज सन्वार जामड़ा, आदिवासी को समाज महासभा, आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान, ‘हो’ समाज एसोशिएशन के प्रतिनिधियों के अलावे उड़ीसा-बिहार के बुध्दिजीवियों, छात्र-छात्राओं एवं समाज सेवियों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन में भाषा विज्ञान के पण्डित एवं लिपि प्रवर्तकों में पण्डित लाको बोदरा, पण्डित रघुनाथ पुरती, पण्डित घनश्याम कालुन्डिया तथा पण्डित पुरूषोत्तम हेम्ब्रम ने उपस्थित हो कर अपने द्वारा आविष्कृत लिपि प्रस्तुत की ।
इस सम्मेलन में चूँकि समयानुभाव के कारण कुछ निर्णय नहीं हो पाया अतः 1984 के अक्टूबर महीने में पुनः तीन दिवसीय सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में उड़ीसा एवं बिहार के सामाजिक, शैक्षणिक संस्थानों के प्रतिनिधियों ने काफी संख्या में हिस्सा लिया।
सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने सर्व सम्मति से श्री रघुनाथ हेम्ब्रम की अध्यक्षता में ग्यारह सदस्यीय उपसमिति का गठन किया गया। उक्त समिति में सर्वश्री गोपी नाथ हेम्ब्रम, सनातन मुण्डा, महेन्द्र नाथ, साऊ मुण्डा, सनातन चातर, सागु सामाड, भगवान चातर, छोटराय मुण्डा, दुर्गा सुरीन, बलराम पाठ पिंगुवा को सदस्य के रूप में मनोनित किया गया।
उप समिति के इन सदस्यों की उपस्थिति सात पण्डितों के द्वारा अन्वेषित लिपि के भाषा एवं अक्षर विज्ञान, की वैज्ञानिकता एवं अन्य व्यावहारिक पहलुयों की कसौटी पर तौलना था।
उप समिति को प्रतिनिधियों के द्वारा निर्धारित चौदह (14) भिन्न- भिन्न बिन्दुओं (check point ) की कसौटी पर विश्लेषण कर अपने निष्कर्ष के प्रतिवेदन सम्मेलन के अध्यक्ष को सौपना था।
सभी उपस्थित सात पण्डितों ने जिन्हें अपनी लिपि की प्रस्तुति करनी थी लिखित रूप से यह घोषणा की कि उन्हें उपसमिति के द्वारा लिया जाने वाला निर्णय मान्य होगा।
तत्पश्चात् सभी सात पण्डितों को उनके द्वारा अन्वेषित लिपि की विशेषताओं को निर्धारित 14 बिन्दुओं के आलोक में विस्तार से प्रस्तुति हेतु, बारी-बारी से प्रत्येक को 1½ घंटे समय दिया गया।
1. पण्डित पुरोषोत्तम गोड्सरा - श्रृष्टि लिपि – उपरोक्त माप दण्डों में इस लिपि को उपयुक्त नहीं माना गया।
2. पण्डित संग्राम सिन्धु सुरीन -ओआर अंकागार – इस लिपि के अन्वेषक स्व. प्रधान सुरीन थे। इस लिपि के द्वारा मुण्डा समुदाय की भाषा के शब्दों को उच्चारण के अनुसार हू-ब-हू दर्शाना सम्भव नहीं हो पाया । इस लिपि में चौवन (54) वर्ण थे।
3.पण्डित घनश्याम कालुन्डिया - ओल क्षिति - इसमें कुल छत्तीस (36) वर्ण थे और देवनगरी लिपि के आधार पर बने थे। इस में मुख्यतः तीन तरह की ध्वनि का समावेश पाया गया और लिखित प्रस्तुति में सक्षम नहीं माना गया।
4. पण्डित रघुनाथ पुरती - हो ओल - यह लिपि मुख्य भाषा की प्रस्तुति में मापदण्ड पर तो ठीक माना गया पर इसके वर्ण – माला ¼ Astro-Asiative ½ में आवश्यक स्वरध्वनि की कमी महसूस की गई तथा वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं गया।
5.पण्डित पुरूषोतम हेम्ब्रम - अदिंग अंका - पौराणिक-धारणा पर बनी 30 वर्णो की इस लिपि में मात्र दो तरह की स्वरध्वनि की प्रस्तुति में सक्षम थी मुण्डा-भाषा की स्वर-ध्वनि को हू-ब-हू प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं पाया गया।
6. पण्डित रूही दास सिंह नाग - मुण्डारी बानी हिसिर चिम्पा - इस लिपि में 30 वर्णमाला ¼ Alphabets ½ है पर इसमें भी मात्र दो तरह के ध्वनिस्वर ही पाए गए जो भाषा की प्रस्तुति में समुचित नहीं समक्षा गया।
7. पण्डित लाको बोदरा - वारङ क्षिति - वारङ क्षिति लिपि में 32 वर्णमाला हैं, जो मुण्डा समुदाय के ऐतिहासिक तत्वों से सम्बंधित एवं सांस्कृतिक बातों पर आधारित हैं कोल पं. लाको बोदरा ने साक्ष्यों के आधार पर प्रस्तुत किया।
उप-समिति के सदस्यों ने पाया कि इस लिपि में मुण्डा भाषा, स्वरध्वनि एवं शब्दों को हू-ब-हू समुचित ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है और इसे भाषा विज्ञान के आधार पर भी सक्षम समक्षा गया।
इस लिपि में 10 स्वर वर्ण 21 व्यंजन वर्ण तथा मूल क्षिति के द्वारा एस्ट्रो-एशियाटिक भाषा के सभी शब्दों को एक बोली के उच्चारण को अक्षरश लिखे जाने की क्षमता पाई गई।
उप समिति ने अपना प्रतिवेदन बन्द एवं सील लिफाफे को सिदा होरा सुसार अखड़ा के अध्यक्ष को सौंपा।
उक्त प्रतिवेदन पर पुनः विचार विमर्श एवं निर्णय लेने हेतू भूवनेश्वर में 9 जून 1985 को एक सम्मेलन बुलाया गया। सम्मेलन भूवनेश्वर के इंजिनियरिंग इन्सटीच्युट में खण्ड -4 में किया गया। बैठक की अध्यक्षता बागे गोवर्ध्दन (भा. प्र. से.) भू.पू. मंत्री भारत सरकार ने की थी। इस सम्मेलन में भी काफी संस्था में सभी हो, मुण्डा समाज के बुध्दिजीवी एवं सामाजिक कार्य-कर्ता उपस्थित थे। सम्मेलन में सर्व सम्मति से पाँच सदस्यों की समीक्षी समिति गठित की गई और निम्नलिखित लोगों को उक्त समिति के सदस्यों का मनोनित किये गये और उन्हें ही लिपि के चयन हेतू अन्तिम निर्णय लेने को प्राधिकृत किया गया।
1. डाँ. राम दयाल मुन्डा (तत्कालीन उप कुलपति राँची वि. वि.)
2. श्री रूप सिंह पिंगुवा (तत्काली प्रधानाध्यापक हाटगम्हारिया उच्च वि.)
3. श्री साऊ मुण्डा (प्रखण्ड) विकास पदाधिकारी, बरकोट उड़ीसा)
4. प्रो. बलराम पाठ पिंगुवा (प्रो. राँची वि.वि.)
5. श्री गोपाल गागराई (प्रदानाध्यापक कुमारडुंगी उच्च वि.)
सिदा होरा सुसार अखड़ा के अध्यक्ष ने 1984 अक्टूबर में जोड़ा सम्मेलन में गठित उपसमिति से प्राप्त प्रतिवेदन के बन्द लिफाफे को सम्मेलन के अध्यक्ष बागे गोवर्दन को सुपूर्द किया। स्व. बागे गोवर्दन ने लिफाफे को बारीकी से जाँच के पश्चात् प्रतिनिधियों के सम्मुख इसे समीक्षा समिति के अध्यक्ष डा. रामदयाल मुण्डा जी को सौंपा।
समीक्षा समिति के सदस्यों ने गम्भीरता से चिन्तन मनन के पश्चात् महसूस किया कि कम समय पर उप समिति के सदस्यों के द्वारा तैयार प्रतिवेदन को जाँचना और निर्णय लेना तर्कसंगत एवं न्याय संगत नहीं होगा। अतः उन्होंने एक महीने के अन्दर प्राप्त प्रतिवेदन का आलोक में सभी लिपि अन्वेषक पण्डितों को बुला कर तत्वों को जाँचने-परखने के पश्चात् निर्णय लेने की घोषणा की। सम्मेलन में सर्व सम्मति से इस निर्णय को स्वीकार किया गया।
तत्पश्चात् 7 जुलाई 1985 को राँची विश्व विधालय के जन-जातीय एवं क्षैत्रीय भाषा विभाग राँची में समीक्षा समिति के सदस्यों के सम्मुख जोड़ा में उपस्थित सभी 7 पण्डितों में से मात्र चार पण्डित उपस्थित हुए। निर्णायक मंडल के सदस्यों ने उप समिति से प्राप्त रिर्पोट, पण्डितों से साक्षात्कार एवं उनके द्वारा भाषा विज्ञान, अक्षर विज्ञान के आलोक में उनकी लिपि की सूक्ष्मताओं की प्रस्तुति को विश्लेषित करने के पश्चात् स्व. पंडित द्वारा अन्वेषित लिपि “वारङ क्षिति” को भाषा-विज्ञान, अक्षर-विज्ञान एवं लिपि की वैज्ञानिकतक व्यावहारिकता के आधार पर एष्ट्रोएशियाटिक मुण्डा समुदाय के लिए सक्षम एवं स्वीकार्य बताया।
इसके अलावे निर्णायक मंडल ने उक्त लिपि की और भी वैज्ञानिक विकास के लिए एवं सकरात्मक प्रचार प्रसार हेतू एक शिक्षा का गठन 19-20 अप्रैल 1986 को सिंञदा (मयूरभंज-उड़ीसा) के सम्मेलन में आयोजित सम्मेलन में लिया गया। जिसमें निम्नलिखित सदस्यों की सर्व सम्मति से प्रतिनिधियों के द्वारा मनोनित किया गया।
1. श्री लाको बोदरा - (वारङ क्षिति लिपि के प्रवर्तक) - झींकपानी।
2. डा. रामदयाल मुण्डा - (प्राधनाध्यापक एवं विभागाध्यक्ष)
जन जातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, राँची वि. विधालय।
3. श्री बागे गोवर्दन - (भा. प्राव से.) भुवनेश्वर।
4. प्रो. बलराम पाट पिंगुवा - (प्राध्यापक )
जन जातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, राँची वि. विधालय।
5. देवन्द्र नाथ चाम्पिया – (विधायक)- जन जातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, राँची वि. विधालय
6. श्री सागु सामाड – (प्रधानाध्यापक)- एस. एस. उच्च विधालय, असुरा, सिंहभूम।
7. श्री हरिचरण सिरका- (झींकपानी)
8. श्री घनश्याम हेस्सा – (सहायक शिक्षक) – कुमारडुंगी उच्च विधालय।
9. श्री साऊ मुण्डा – (उड़ीसा प्रा. से.) – प्रखण्ड विकास पदाधिकारी, बरकोट
10. घनश्याम तिरिया – (सचिव). सिदा होरा सुसार अखड़ा, ग्राम-हातनाबेड़ा, कुसुनी प्रखण्ड (उड़ीसा)
11. श्री सुरा बान्डरा - (भू.पू. शिक्षक) – ग्राम- राजाबासा, सिंहभूम
12. चरण हाँसदा – ग्राम तालाबूरु, सिंहभूम
13. श्री दशरथी पाड़ेया – ग्राम जामबनी, पो. कराडापाल ( क्योंझर)
14. श्री गोविन्द मुण्डा – (भू.पू. सांसद) क्योंझरगढ़, उड़ीसा
15. श्री घनश्याम सिंकू – (शिक्षक) ग्राम टून्टाकाटा, सिंहभूम
16. श्री रघुनाथ हेम्ब्रम – (भू.पू. विधायक) उड़ीसा
17. श्री दुर्गा चरण केराई – जोड़ा (उड़ीसा)
18. श्री हरिचरण हाईबूरू – ग्राम मधुबन (उड़ीसा)
19. श्री भगवान चातर - ग्राम सरबिल (उड़ीसा)
20. श्री गोपीनाथ हेम्ब्रम – (अध्यक्ष) सिदा होरा सुसार अखड़ा रिजर्व बैंक, भूवनेश्वर (उड़ीसा)
21. श्री सिदेश्वर तियू – (महासचिव) सिदा होरा सुसार अखड़ा रिजर्व बैंक, भूवनेश्वर (उड़ीसा)
अतः इस तरह वारङ क्षिति लिपि सर्व सम्मति से व्यवहारिक रूप से शैक्षणिक संस्थानों में अपनाने हेतू स्वाकार्य हुआ।
इसके पश्चात् 10 एवं 11 दिसम्बर 1994 में “हो भाषा साहित्य विकास समिति” चाईबासा के द्वारा आयोजित प्रथम व्दि- दिवसीय सम्मेलन में दो सौ बरसठ (262) प्रतिनिधियों के द्वारा “वारङ क्षिति ” के विवादों पर चर्चा की गई।
सम्मेलन के उदघाटन के निमित सुश्री सुशिला तिरिया (उड़ीसा), तत्कालीन संसद को आमंत्रित किया गया पर स्वीकोरोक्ति के पश्चात् भी दिल्ली में कुछ आवश्यक व्यस्तता के कारण वह नहीं आ सकी और सम्मेलन का उदघाटन श्री चन्द्रभूषण देवगम अधिवक्ता चाईबासा ने किया। सम्मेलन में मुख्य अतिथि श्री अनन्त कुमार पिंगुवा (भा. प्र. से) थे। इसके अलावे सम्मेलन में उड़ीसा-बिहार के बुध्दिजीवियों सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध प्रतिनिधियों के अलावे विधायक संसद एवं विभिन्न राजनैतिक पार्टियों से सम्बन्ध नेताओं ने भी सम्मेलन में जिम्मेदारी पूर्वक हिस्सा लिया।
सम्मेलन में (हो) (मुन्डा) भाषा को अन्य भाषाओं की तुलना में काफी समृध्द माना गया- उदाहरणतः हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत में एक ही शब्द काटना को ‘हो’ में विभिन्न शब्दों में तोपाङ, मः, हेस्से, रचम, रेडेए, इर, हुअः सोदा आदि शब्दों से कह कर किया की बिलकूल स्पष्ट रूप में दिखाया जा सकता है।
विचार विमर्श में निष्कर्ष निकाला गया कि रोमन वर्णमाला की तरह ही वारङ क्षिति में छोटा-बड़ा ¼ Small & capital ½ वर्णमाला है, और इनके अक्षर स्वतंत्र हैं संयुक्ताक्षर नहीं है। जिसमें सांकेतिक शब्दों एवं रसायन शास्त्र के सूत्रों को भी सहजता पूर्वक दर्शाया जा सकता है। इसके अलावे कम्प्युटर में भी तकनीकी आधार पर वारङ क्षिति को आसानी से अपनाए जाने की साक्ष्य प्रस्तुत की गई।
वारङ क्षिति हो भाषा की ध्वनि एवं वर्तनी को अक्षरशः अंकित करने में भी सक्षम पाया गया। अतः सम्मेलन में सर्व सम्मति से वारङ क्षिति को सर्व मान्य घोषित किया गया और सम्मेलन की ओर से राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार के सभी संबधित अधिकारियों को ‘वारङ क्षिति’ की पढ़ाई क्षेत्रीय भाषा के रूप में महाविधालयों तक में ही सीमित है। प्राइमरी स्तर से करने कराने हेतु प्रतिवेदन दिया गया। उपायुक्त सिंहभूम श्री अमित खरे ने इस माँग को उचित ठहराते हुए शिक्षकों को वारङ क्षिति के प्रशिक्षण के लिए बड़ा झींकपानी (टोन्टो) प्रखण्ड में प्रशिक्षण संस्थान बनवाने का आश्वासन दिया जहाँ पहले से ही श्री चरण हाँसदा एवं श्री डोबरो बुड़ीउली के प्रयासों से प्रशिक्षण का कार्य चलाया जा रहा था।
इसके पश्चात् सरकार पर दबाव देने हेतू दिनांक 26-02-1996 को हो भाषा साहित्य विकास समिति के तत्ववधान में ही एक विशाल जुलूस का आयोजन चाईबासा में किया गया। पारम्परिक जनजाती गाजा बाजा के साथ निकाले गये इस विशाल जूलूस में सिंहभूम, जमशेदपुर के गाँव-गाँव के स्त्री-पुरूष छात्र-छात्र लाखों की संख्या में सम्मिलित हुए। कहा जाता है कि इतनी संख्या में आज तक लोगों का जूलूस अनुशासनात्मक ढंग से नहीं देखा गया। जूलूस का नेतृत्व श्री देवेन्द्र नाथ चाम्पिया, श्री सागु सामाड, श्री मानसिंह बंकिरा, सतीशचन्द्र बुड़ीउली आदि कर रहे थे और जूलूस के प्रतिनिधियों ने उपायुक्त श्री अमित खरे को अपनी माँग पत्र सौंपी।
उपायुक्त ने वारङ क्षिति की पढ़ायी स्कूलों में वर्तमान पदास्थापित शिक्षकों को ही प्रशिक्षण देकर पढायी आरम्भ कराने का आश्वासन दिया और इस हेतू प्रतिनिधियों की उपस्थिति में ही अपने कक्ष में जिला शिक्षा अधीक्षक को बुला कर मौखिक निर्देश भी दिया।
इस तरह हम पाते हैं कि हो (मुण्डा) समाज की जन मानस ने वारङ क्षिति लिपि को अब पूर्णतः स्वीकार्य तो कर लिया है और इसे संविधान के अष्ठम सूची में सम्मिलित करा कर त्रिभाषीफार्मूला के सिध्दान्त में इसकी पढ़ाई आरम्भ कराने हेतू प्रयासरत है।
स्पष्ट है कि गुरू लाको बोदरा द्वारा अण्वेषित लिपि ‘वारङ क्षिति’ को अपनी उपयुक्तता वैज्ञानिकता, व्यावहारिकता की कसौटी में खरा उतरने हेतू कई-कई परीक्षाओं, से गुजरना पड़ा पर अब कोई विवाद नहीं है।
यही कारण था कि 1894 के सम्मेलन के खुला अधिवेशन में श्री मंगल सिंह बोंबोगा (विधायक) ने स्पष्ट घोषणा की थी, कि आज के बाद इसे अपनाया जाय या नहीं, पढ़ा जाय या नहीं, यह विवाद बिल्कुल समाप्त हो गया। अब सिर्फ यह प्रयास जारी रहेगा कि, इस पठन-पाठन के सिलेबस में कैसे सम्मिलित कराया जाय।
डाँ. राम दयाल मुन्डा (तत्कालीन उप कुलपति राँची वि. वि.) के बारे में पढ़े :-यहाँ क्लिक करें
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